क्या फटे हुए मोजे पहनना जुर्म है?
दैनिक जागरण ने विश्व बैंक के चेयरमैन पॉल वुल्फोविट्ज के एक फोटो को बॉक्स बनाकर प्रकाशित किया है। फोटो है उनके फटे हुए मोजों का। वुल्फोविट्ज साहब को कहीं जूते उतारने पड़ गए और उनके मोजों में छेद देखकर कोई फोटोग्राफर फोटो लेने लपक पड़ा। इतना ही नहीं, कुछ अखबारों ने उसे छाप भी दिया और वह भी प्रमुखता के साथ। सवाल है कि मीडिया को इस तरह किसी की खिल्ली उड़ाने का अधिकार किसने दिया? कितने लोग (मीडिया वाले भी) होंगे जिन्होंने अपने जीवन में कभी छेद वाला मोजा नहीं पहना होगा? तो क्या ऐसा कर उन्होंने कोई अपराध किया है? क्या हम किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन करने के लिए उसके अंतःवस्त्रों तक पहुंच सकते हैं? क्या हमें किसी की दशा-दुर्दशा पर इस तरह मजे लेने का नैतिक या पेशेवराना हक है? हालांकि अपनी पोस्ट में यह चित्र छापते हुए मैं स्वयं बेहद असहज महसूस कर रहा हूं लेकिन पाठकगण क्षमा करें, अपनी बात स्पष्ट करने के लिए मेरे लिये इसे संलग्न करना एक मजबूरी है।
2 Comments:
सचमुच मीडिया किसी को जलील करने के लिए किसी भी हद तक चला जाता है। मैंने भीतर क्या पहना है, क्या नहीं, इससे मीडिया का भला क्या ताल्लुक हो सकता है? किंतु कुछ भी चटपटा मिला और मीडिया का काम बन गया... - हम हैं हमारा।
नाइंसाफी की हद है। हमारा प्रेस भी कभी-कभी कितना नीचे गिर जाता है। - हम हैं हमारा
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