ऐसी हिंदी से तो अंग्रेजी ही भली थी
दैनिक भास्कर विज्ञापन एजेंसियों के लिए पुरस्कार शुरू कर रहा है- कृतिकार पुरस्कार। अपने अखबार के संस्करणों में उसने इसे काफी प्रचारित किया है,लेकिन भारत के सबसे तेज बढ़ने वाले अखबार की भाषा तो देखिए। भैया, हिंदी अखबारों में अंग्रेजी विज्ञापन छापने पर रोक थोड़े है। ऐसी 'हिंदी' भाषा को भला देवनागरी में छापने की कौनसी मजबूरी आन पड़ी थी? रोमन में ही छाप लेते!
11 Comments:
रोमन में छाप लेते तो हिन्दी की ऐसी-तैसी करने का ज़बरदस्त मौक़ा न हाथ से निकल जाता!
अगले ने देवनागरी में अंग्रेजी लिखी है, आप खामखाँ मीन-मेख निकाल रहे हो.
बालेन्दु जी, सबसे तेज बढने वाला अखबार होने या सबसे ज्यादा प्रसार संख्या बना लेने से "हिन्दी" का कोई लेना-देना नहीं होता :), हमने तो "भास्कर" को बहुत पहले ही "राष्ट्रीय" (?) अखबार मानना बन्द कर दिया था। कुछ लोगों को यह समझने में थोड़ा वक्त लगता है कि अखबार बेचना, तेल-साबुन-लाटरी टिकट बेचने से काफ़ी अलहदा है, और कुछ लोग इन दोनों कामों को एक ही समझ लेते हैं।
संजय बेंगाणी की टिप्पणी ठीक है. देवनागरी में अंग्रेजी लिख रहा है यह क्या कम है. वैसे भाष्कर ऐसी भाषा को चलन में लाने की योजनाएं पहले से बना रहा है जिससे हिन्दी और लोकभाषा का अनादर हो सके.
टारगेट आडियेंस तो है अंग्रेंज़ी दाँ फ़िर देवनागिरी पेलने की क्या ज़रूरत है भाई लेकिन अपने को जुदा दिखाने के लिये आज के अख़बार कुछ भी कर सकते हैं.बालेंदु भाई आप कृतिकार अवाँर्ड की छोडिये इस हेडलाइन पर नज़र डालिये..ये किसी अंग्रेज़ी अख़बार से लिफ़्ट कर के देवनागिरी में नही लिखा है मैने...भास्कर के छिछोरे सिटी भास्कर की बैनर हेडलाइन है ये....मुलाहिज़ा फ़रमाएँ और माथा पीट लें....
-संडे किचन के किंग
- देट्स रीयल इंडीयन स्पिरिट
अंग्रेज़ चले गये इन्हे छोड़ गये हैं.
आजकल मैं ऐसे लोगों से मिलता हूं जिनसे जब मैं "तिरसठ" बोलता हूं तो पूछते हैं कि तिरसठ यानि?
शायद ऐसे लोगों को ही ध्यान मे रखकर ये एड बनाया गया है
कैसी विडंबना है कि फिरंगियों एवं गोरे अंग्रेजों से छुटकारा मिल गया लेकिन काले अंग्रेज अभी भी हिन्दुस्तान को अंग्रेजी का बंधक रखे है -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार !!
यह दिमाग का दिवालियापन है.
मेरे नजरिये से दोनों अपनी जगह सही है. बालेन्दु जी का हिन्दी को लेकर नजरिया सही है लेकिन अखबार का नजरिया विज्ञापन के हिसाब से सही है.आखिर कुछ तो ऐसा है उस विज्ञापन मे कि बालेन्दु जी जैसे बुद्धिजीवी इस पर चर्चा कर रहे है. मैं तो कहूंगा विज्ञापन सफल रहा हां हिन्दी जरूर असफल हो गई.
मुझे पहली बार इस ब्लॉग पर जाने का मौका मिला। ऐसी संग्रहणीय बातों को संजोने के लिए धन्यवाद।
बालेन्दु जी, जब हम तिरुपति, कन्याकुमारी, रामेश्वरम् आदि दक्षिण भारतीय तीर्थों पर जाते हैं तो वहाँ के सूचनापट्टों में हिन्दी में जो विवरण लिखे होते हैं, उनको देखकर तो अपना सिर फोड़ लेने के अलावा कोई उपाय नहीं सूझता, आपने जो उद्धृत किया है, वह कम से कम समझ में तो आ रहा है।
हम सारे विश्व में हिन्दी को फैलाने की बात कर रहे हैं, यदि अफ्रीकी, लातिनी, चीनी हिन्दी में लिखेंगे तो क्या हाल होगा???
मेरे विचार में देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को तकनीकी रूप से सरल बनाने की जरूरत है।
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